

बेशक, इसके लिए जो मेथड चुना गया, उस पर बहस हो सकती है. पहली नजर में सरकार का कदम अर्ध-संवैधानिक (क्योंकि मैं माननीय जज नहीं हूं, मेरे अंदर इसे असंवैधानिक कहने को लेकर हिचक है) लगता है. पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा को भंग करना, उसके बाद सारी शक्ति चुने हुए राज्यपाल के हाथों में देना, उसके बाद गढ़ी हुई और अहंकारी सत्ता का इस्तेमाल अपने कदमों को सही ठहराने के लिए करना- इन्हें देखकर पहली नजर में तो यही लगता है कि मोदी-शाह सरकार ने जज, ज्यूरी और एग्जीक्यूशनर तीनों की भूमिका खुद ही निभाई. इसलिए या तो उनके मेथड को खराब/गोपनीय या असैद्धांतिक/फर्जीवाड़ा कहा जा सकता है.
अब इस फैसले की मोरैलिटी यानी नैतिकता पर आते हैं. इस मामले में मोदी-शाह सरकार फिसलन भरी राह पर दिख रही है. एक राज्य की समूची आबादी को उनके घरों में कैद कर दिया गया, नेताओं को हिरासत में लिया गया, कम्युनिकेशन और मोबिलिटी रोक दी गई और पूरे राज्य को जूतों तले दबा दिया गया- और उसके बाद कब्रगाह जैसे सन्नाटे में सरकार ने ऐसा कानून पास किया (संविधान के तहत यह काम किया गया), जो जनता से आदेश मिलने के बाद ही किया जाना चाहिए. यह सोचना भी खतरनाक है कि यह काम राजनीतिक मर्यादा के तहत किया गया. अगर आप ऐसा करते हैं तो आप सच से मुंह चुरा रहे हैं.

