राहुल गांधी नहीँ रहे कांग्रेस के अध्यक्ष!, क्या कांग्रेस हुई ख़त्म?, कौन सम्भाल रहा है पार्टी का कार्यभार

आपको मालूम हो राहुल गांधी अब कांग्रेस अध्यक्ष नहीं हैं क्योंकि उन्होंने बुधवार को एक चार पन्नों की बड़ी चिट्ठी सार्वजनिक करते हुए यह साफ़ कर दिया कि, अब वह अध्यक्ष पद पर नहीँ रहे!

इससे अब तक मीडिया में जो बातें सूत्रों के हवाले से चल रही थीं, उसकी पुष्टि भी हो गई कि, राहुल गांधी ने इस्तीफ़ा दे दिया है, और वो उसे वापस न लेने पर अडिग हैं.

राहुल गांधी ने अपना इस्तीफ़ा सार्वजनिक इसलिए किया, क्योंकि यह फ़लसफ़ा ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. उन्होंने कांग्रे’स कार्य’समिति की बैठक में कह दिया था कि, वह इस्तीफ़ा दे रहे हैं लेकिन पार्टी के बहु’त से नेतागण बार-बार उनसे पद पर बने रहने का आग्रह कर रहे थे.

अब कार्यसमिति को तय करना होगा कि अगला क़दम क्या होगा
लेकिन देखा जाये तो राहुल गांधी ने अपना मन बना लिया था कि, अब जब ये बात सार्वजनिक हो ही गई है, तो कांग्रेस पार्टी के पास कोई उपाय नहीं है, सिवाय इसके कि वो नया नेता चुनें और वह नेता किस प्रक्रिया से चुना जाएगा, यह तो आने वाले समय में ही पता चल पाएगा. लेकिन कांग्रेस का संविधान यह कहता है कि, ऐसी स्थिति में कांग्रेस का सबसे वरिष्ठ महासचिव अस्थायी तौर पर अध्यक्ष का कार्यभार संभाल लेता है.

कांग्रेस पार्टी में मोती’लाल वोहरा सबसे वरिष्ठ महासचि’व हैं और हो सकता है कि, वो जल्द ही पार्टी कार्यसमिति की बैठक बुलाएं और उसमें ये तय हो कि, पार्टी का अगला क़दम क्या होगा या कहें पार्टी का नया अध्यक्ष कौन होगा!

साथ ही आपको मालूम हो राहुल ने चार पन्नों की अपनी इस बड़ी चिट्ठी में लिखा है कि, हम अपने प्रतिद्वंद्वियों को तब तक नहीं हरा सकते, जब तक हम सत्ता की चाहत न छोड़ दें, और एक बड़ी विचारधारा की लड़ाई लड़ें.

यहां राहुल गांधी का इशारा पार्टी के बड़े नेताओं के लिए भी है और स्वयं अपने लिए भी है. बहुत से लोग मान’ते हैं और मेरी व्यक्तिगत रा’य भी यही है कि, जब उन्होंने पार्टी छोड़ने का मन बना लिया था तो, उनका यह दायित्व भी था कि, वो अपना पद तब छोड़ते, जब उनका उत्तराधिकारी मनोनीत हो जाता. भले ही वो उस प्रक्रिया में सक्रिय भूमि’का न निभा’ते लेकिन कम से कम एक उत्प्रेरक की तरह वो प्रक्रिया शुरू करा’ते और उसे अंजाम तक पहुंचाते.

पार्टी के लिए शिष्टता और विवेक का सवाल
लेकिन वस्तुस्थि’ति अब ये है कि, नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य नए नेतृत्व के चुनाव में सक्रिय भूमिका नहीं निभाएगा और ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है कि, नया नेतृत्व सर्वसम्मति से चुना जाएगा और पार्टी को एकजुट रख पाएगा? ये एक बड़ा सवाल है, और इसका जवाब राहुल गांधी को अध्यक्ष पद छोड़ने से पहले देना चाहिए था. राजनीति में हार और जीत तो लगी रहती है और हार का दायित्व भी नेतागण लेते हैं. लेकिन उसमें भी एक शिष्ट’ता और वि’वेक होना चाहिए, जो इस तरह पद छोड़कर जाने में नहीं है.

अगर यह मान लिया जाए कि, राहुल गांधी को मनाने की कोशिशें नाकाम रहेंगी तो, यह तय है कि, अध्यक्ष के तौर पर उनका संक्षिप्त कार्यकाल ख़त्म हो गया है और यह बात तो माननी पड़ेगी कि, उनकी अगुवाई में पार्टी हाल ही में तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव जीती थी, साथ ही यह भी याद रखना पड़े’गा कि, 2019 लोक’सभा चुनावों में पार्टी की बड़ी हार हुई. लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार के दो-तीन बड़े प्रमुख कारण थे, जिनमें से एक यह भी था कि, बीजेपी ने बालाकोट प्रकरण के बाद नैरेटिव अपने पक्ष में कर लिया था. वहीं कांग्रेस पार्टी की ओर से इस मुद्दे पर जो सवाल उठाए गए, वो जनता-जनार्दन के गले से नहीं उतरे, जैसे एयर स्ट्राइक पर सबूत मांगना! और केई अन्य

यह बात राहुल गांधी को ख़ुद सोचनी चाहिए थी कि क्या इसमें उनकी चूक नहीं है? जो उस वक़्त पार्टी का नैरेटिव बना था, उसे बनाने में मुख्य योगदान तो पार्टी अध्य’क्ष का ही हो’ता है. उन्होंने अपनी ग़लती तो मानी है और त्यागपत्र दिया है लेकिन पद छोड़’ने से पहले उन्हें पार्टी को ऐसी जगह स्थापित करना चाहिए था, जहां पार्टी के पास एक बड़ा नेता अध्यक्ष पद के लिए होता और रोज़मर्ऱा का काम जारी रहता और एक नए उद्देश्य से पार्टी आगे बढ़ती लेकि’न किसी बदला’व की प्रक्रिया को शुरू किए बिना बीच में छोड़कर चले गये!

मैं यह समझता हूं कि, यह पद छोड़ना पार्टी के हित में नहीं है, और आने वाले कुछ ही महीनों में पार्टी को चुनावों का सामना भी करना है.

हालांकि इस बात से मेरी सहमति नहीं है कि, राहुल के साथ एक नाकाम कांग्रेस अध्यक्ष की तख़्ती लगा देनी चाहिए क्योंकि राजनीति में वक़्त बदलता है और कभी कभी बहुत जल्द और कभी कभी इसके पीछे एक लंबी जद्दोजहद होती है, इसलिए कभी किसी नेता को नगण्य नहीं मानना चाहिए. कई बार एक झटके में बदलाव होते हैं और हमने इतिहास में ऐसा कई बार देखा है!

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