बयानबाजी में चुनावी नाव पार करने के लिए बेतुकी भाषा इस्तेमाल होना अलग बात है मगर धर्मो के आधार पर लाभ पाने के लिए आतंकवादियों को भी टिकट देने का मामला पहली मर्तबा सामने आया है। जी हां मैं मालेगाव बम्बलास्ट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा की बात कर रहा हूँ। क्या आतंकवाद को खत्म करने का दावा करने वाली बीजेपी को साध्वी प्रज्ञा में कोई बुराई नज़र नही आई। कन्हैया कुमार को राष्ट्रद्रोही बताने वाले टीवी चैनल्स में चिल्ला चिल्लाकर बोलने वाले संबित पात्रा बताए, भाजपा को अब क्या कहा जाना चाहिए, क्या आज तक, ज़ी न्यूज़, इंडिया टीवी इस पर डिबेट करने की हिम्मत रखते है, मैं टीवी चैनल्स से मांग करता हूँ, कि साध्वी प्रज्ञा पर डिबेट करे और उस डिबेट में संबित पात्रा भी हो तो कन्हैया कुमार भी शामिल हो। तब तुम्हारी असली देशभक्ति का पता चलेगा। सबसे पहला तो एक आतंकी घटना में शामिल आरोपी को भोपाल से टिकट दिया गया, फिर उस आरोपी प्रत्याशी ने सारी मर्यादाएं तार तार कर स्वयं को पक्का आतंकवादी साबित भी कर दिखाया। उसे आतंकवादी क्यो न कहा जाए जो महाराष्ट्र के जाबाज़ अधिकारी, जिन्होंने आतंकियो से लड़ते हुए अपनी जान गवा दी। जिनके ईमानदारी और वफादारी के चर्चे एक इतिहास में बार बार दोहराए जाते है। ऐसे पुलिस ऑफिसर की शहादत को अपने सड़े गले श्राप का श्रय देना बेवकूफी ही कही जाएगी। खुले मंच से जो एक शहीद को अपमान कर रहा हो, उसे गालियां दे रहा हो, उसकी मौत अपने दिए हुए श्राप के कारण बता रहा हो उस इंसान को क्या कहा जाना चाहिए। यकीनन उसे आतंकवादी ही कहा जायेगा, लेकिन मीडिया उस साध्वी प्रज्ञा के बयान को कोई तूल नही देंगी, क्योकि वो भाजपा की प्रत्याशी जो ठहरी और इस बात को नकारा नहीं जा सकता जो भाजपा में शामिल हो जाये उससे बड़ा देश भक्त कोई नहीं, वो चाहे करकरे जैसे शहीद को गाली दे या फिर बाबरी मस्जिद को तोड़ने की घोषणा करे। कुछ भी हो मगर मीडिया ऐसे मामलों में कोई रिस्क नही लेंगी। बस आज़म खान के चढ्ढी वाले बयान को दुनिया का सबसे खतरनाक, और शर्मनाक ब्यान साबित करने का प्रयास करेगी। मीडिया की ही देन है कि आजम खान के बयान को जयप्रदा से जोड़ा गया, जबकि वो बयान अमरसिंह के लिए दिया गया था, लेकिन हम जैसे चन्द लेखकों की आवाज़ जाती ही कितनी दूर है। अक्षय कुमार द्वारा प्रधानमंत्री का लिया गया साक्षात्कार ऐसे प्रदर्शित किया जा रहा है, जैसे रवीश कुमार को मोदी ने इंटरवियू दे दिया हो। अक्षय कुमार के साक्षात्कार को इतनी हवा देना तब अच्छा लगता जब उनके सवालों में कुछ नकारात्मक सवाल भी होते। ऐसे किसी से साधारण बातचीत को साक्षात्कार नहीं कहा जा सकता है। साक्षात्कार तब समझा जाता जब उनके सवालों में ये सवाल भी शामिल होते,
सवाल
- अफ़ज़ल गुरु के पक्ष में नारे लगने की एक वीडियो के आधार पर जेएनयू के छात्रों कन्हैया कुमार व उनके साथियों को देशद्रोही साबित कर दिया जाता है और आपकी पार्टी आतंकी घटना में शामिल रहने की आरोपी को टिकट तक दे देती है?
- साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की जमानत उनके खराब स्वास्थ्य के आधार पर मिली है फिर उनका चुनाव लड़ना उनकी बेहतर स्वास्थ्य दर्शा रहा है, भाजपा को चाहिए कि वो कानून की मदद कर उनकी जमानत जब्त कराए।
- जाबाज़ ऑफिसर शहीद हेमंत को अपमान करना, उनके बारे में अपशब्द कहने वाली भाजपा प्रत्याशी को आप किस नज़रिए से देखते है?
- बाबरी मस्जिद तोड़ने की खुले मंच से घोषणा करना और चुनाव को धर्म युद्ध बता कर वोटो का धुर्वीकरण करने का प्रयास कर चुनाव आयोग को खुली चुनौती देने वाली भाजपा प्रत्याशी को क्या कहोगे।
- पिछले चुनाव में दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देने का किया गया वादा , बेरोज़गारो को इस बार क्या आश्वासन दोगे?
- पाकिस्तान से 10 सर कब लाओगे?
- कालाधन कब वापस होगा?
- राफेल विमान खरीद मामले पर क्या जवाब दोंगे?
- नोटबन्दी से भर्ष्टाचार या आतंकवाद पर रोक क्यो नही लगी?
- विदेशों में घूमने के बावजूद महंगाई कम क्यो नही हुई?
- पेट्रोल डीजल के दाम से जनता हलकान क्यो रही?
- सब्सिडी के नाम पर गैस सिलेंडरों में चोर बाज़ारी क्यो चली?
- अपनी सरकार की एक उपलब्धि गिना दीजिये जिससे जनता को सबसे अलग कोई फायदा पहुंचा हो?
- विपक्ष में रहकर आधार कार्ड, जीएसटी का विरोध करने वाले नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद इसे जरूरी करार देने पर क्यो मजबूर हुए?
यदि इन सवालों में से एक भी सवाल अक्षय कुमार ने पूछा होता तो उसे साक्षात्कार मान लेना चाहिए, अन्यथा मीडिया की इस साजिश को समझकर स्वयं देश की भलाई के लिए आगे आइये।
फरमान अब्बासी लेखक की कलम से