जाने क्या है माहे रमज़ान? क्यों रखते हैं मुस्लिम रोज़ा?

सलीम राव, दिल्ली: दीन इस्लाम में अल्लाह ने अपने बंदों पर कुल पांच चीजें फ़र्ज़ लाजिमी की हैं-कलमा, नमाज़, रोज़ा, हज और ज़क़ात। इन पांच चीजों में रोज़ा यानी रमज़ान बहुत अहम मुकाम रखता है। इस्लामी कैलेंडर साल का नौवां महीना रमज़ान है. इस महीने में हर मुसलमान के लिए अल्लाह ने 30 रोज़े फ़र्ज़ किए हैं। इस महीने की फज़ीलत अहमीयत दीगर सभी महीनों की मुकाबले में बहुत ज्यादा है। इस मुबारक महीने में मुसलमानों का मुकद्दस किताब क़ुरआन पाक नाज़िल हुयी थी.इस माह रोज़ा रखने वालों को अल्लाह उनकी इबादत का 70 गुना ज्यादा सवाब (पुण्य) देता है।

रमज़ान माह में नवाफिल नमाज़ों का सवाब सुन्नत के बराबर, सुन्नत नमाज़ों का सवाब फ़र्ज़ के बराबर और फ़र्ज़ नमाज़ों का सवाब 70 गुना ज्यादा हो जाता है। इस महीने इंसान को उसकी हर नेकी का सवाब 70 गुना ज्यादा मिलता है। इस पवित्र माह में अल्लाह शैतानी ताकतों को कैद कर देता है ताकि ये उसके बंदों की इबादत में खलल न डाल सकें।माहे रमज़ान में हर मुसलमान के लिए रोज़ा अनिवार्य है। रोज़े का समय सूर्योदय के लगभग डेढ़ घंटे पहले शुरू होता है और सूर्यास्त होते ही रोज़ा रखने वाला व्यक्ति रोज़ा इफ़्तार कर लेता है। दिन भर रोज़े के दौरान रोज़ेदार के आत्मसंयम की कड़ी परीक्षा होती है।

रोज़े के दौरान वह कुछ भी खा पी नहीं सकता है। उसे ऐसी हर उस चीज़ से भी बचना होता है जो उसका रोज़ा मकरूह (खराब) कर सकती है। इसके अलावा शरीर को आंतरिक सुख संतुष्टि पहुंचाने के लिए किया गया कोई भी काम रोज़ेदार का रोज़ा मकरूह कर सकता है या तोड़ सकता है इसलिए पूरे दिन रोज़ेदार को इन सारी चीजों से बचना होता है। रोज़ेदार के सब्र की परीक्षा इतनी कड़ी होती है कि उसे बुरी चीजें देखने, सोचने आदि की भी मनाही है। यहां तक कि रोज़ेदार को खुशबू से बचने की हिदायत भी दी गई है। रोज़े की हालत में संभोग की भी मनाही है। अल्लाह ने रोज़ा किसी भी हालत में माफ नहीं किया है। जो शख्स किसी बीमारी आदि की वजह से रोज़े नहीं रख पाते हैं, उनके लिए अल्लाह का हुक्म है कि वह तबियत ठीक हो जाने पर अगले साल के रमज़ान से पूर्व इन रोज़ों को पूरा करें।

इस मुबारक महीने में चूंकि कुरआन नाज़िल हुआ था इसलिए अल्लाह ने इस माह कुरआन की तिलावत को बहुत ज़रूरी करार दिया है। रमज़ान का चांद दिखाई देते ही मस्जिदों में तरावीह (विशेष नमाज़ जिसमें कुरआन का पाठ किया जाता है) का आयोजन किया जाता है। तरावीह के दौरान मस्जिदों में पेश इमाम के पीछे 20 रकअत नमाज़ पढ़ी जाती है। नमाज़ के दौरान इमाम कुरआन का पाठ करता है जिसे पीछे खड़े होने वाले ध्यान लगाकर उसे सुनते हैं। इसके अलावा घरों और दुकानों में भी कुरआन का पाठ जोर-शोर से किया जाता है।

माहे रमज़ान में ऐतिकाफ़ का भी विशेष महत्व है। ऐतिकाफ़ के तहत रोज़ेदार अपने घर-मुहल्ले की नज़दीकी मस्जिद में चला जाता है व दिन-रात इबादत करता है और तब तक वहां से बाहर नहीं निकलता है जब तक ईद का चांद देख नहीं लेता। कुछ लोग रमज़ान के तीस रोज़ों में से दस रोज़ों तक ऐसा करते हैं, तो कुछ 15, 20 या तीसों रोज़ों तक ऐतिकाफ़ में बैठते हैं। ऐसी मान्यता है कि जिस मुहल्ले का कोई एक भी व्यक्ति ऐतिकाफ़ में बैठता है, वह मुहल्ला पूरे साल हर मुसीबत और बला से महफ़ूज़ रहता है।

रमज़ान के महीने को कुल तीन हिस्सों में रखा गया है। पहले दस रोज़े रहमत के होते हैं। दूसरे दस रोज़े बरकत के और तीसरे दस रोज़े मग़फ़िरत के होते हैं। माहे रमज़ान के आखिर दस दिनों में 21, 23, 25, 27 और 29 रमज़ान की शब (रात) बहुत ख़ास मानी जाती है। इन रातों में से कोई एक रात ऐसी रात होती है जिस रात अल्लाह रमज़ान के महीने में रोज़ा रखने वालों, इबादत करने वालों और रो-रोकर दुआएं मांगने वालों को इनामों से नवाज़ता है। रोजेदार इस महत्वपूर्ण शब (रात) को तलाशने के लिए पांचों शबों में खूब इबादत करते हैं और रोकर, गिड़गिड़ाकर अल्लाह की बारगाह में दुआएं मांगते हैं। कुल मिलाकर रोज़ाए इन्सान के सब्र का इम्तेहान होता है। जो व्यक्ति इस इम्तेहान में पास हो जाता है अल्लाह तआ़ला उसे दुनिया में भी नवाज़ते हैं और आख़िरत में भी।

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